मद्रास उच्च न्यायालय ने नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर सोमवार को एक अहम टिप्पणी की। श्रीलंकाई शरणार्थी दंपति से जन्मी एक महिला की याचिका पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा कि श्रीलंका के हिंदू तमिल नस्लीय संघर्ष के सबसे पहले शिकार थे लेकिन वे नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के तहत नहीं आते हैं। हालांकि कोर्ट ने कहा कि इस मसले पर फैसला केंद्र सरकार को लेना है। दरअसल तमिलनाडु में श्रीलंकाई शरणार्थी दंपति से जन्मी याचिकाकर्ता महिला भारतीय नागरिकता की मांग कर रही है।
मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ के न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन ने कहा कि अगर याचिकाकर्ता एस. अबिरामी को भारतीय नागरिकता नहीं दी जाती है, तो यह उन्हें राज्यविहीनता की ओर ले जाएगा। राज्यविहीनता यानी स्टेटलेसनेस उन लोगों को कहते हैं जिनके पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं होती है। इस मसले पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन ने कहा, “यही वह स्थिति है जिससे बचना होगा।” याचिका पर आदेश अगस्त में ही सुरक्षित रखा गया था और इसे सोमवार को पारित किया गया।
यह वही जज थे जिन्होंने अगस्त में त्रिची के क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय को श्रीलंका शरणार्थी शिविर से 36 वर्षीय के नलिनी को भारतीय पासपोर्ट देने का निर्देश दिया था। वह ऐसा करने वाली पहली महिला बनी थीं। अदालत ने कहा कि नागरिकता अधिनियम, 1995 की धारा 3 के तहत उनकी राष्ट्रीयता निस्संदेह थी। यह धारी कहती है कि 26 जनवरी 1950 और 1 जुलाई 1987 के बीच भारत में पैदा हुआ व्यक्ति “जन्म से नागरिक” है। के नलिनी का जन्म 1986 में तमिलनाडु के मंडपम में एक शरणार्थी शिविर में हुआ था, जो श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान भागने वालों के लिए पहला पड़ाव था। चूंकि कोर्ट के आदेश के बाद उन्हें सितंबर में भारतीय पासपोर्ट दिया गया था, इसलिए इसने अन्य लोगों को भी आवेदन करने की उम्मीद दे दी।